सांख्य दर्श
सांख्य में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व माने गए हैं। प्रकृति को सत्व, रजस् और तमस् इन तीन गुणों से निर्मित कहा गया है। त्रिगुण की साम्यावस्था, प्रकृति और इनके वैषम्य से सृष्टि होती है। सृष्टि में कुछ नया नहीं है, सब प्रकृति से ही उत्पन्न है। संसार प्रकृति का परिणाम मात्र है। सत्कार्यवाद और परिणामवाद के प्रवर्तक के रूप में सांख्य की प्रसिद्धि है। पुरुष के संनिधि मात्र से प्रकृति में वैषम्य होने से सृष्टि होती है। प्रकृति जड़ है-पुरुष चेतन, प्रकृति कर्ता है-पुरुष निष्क्रिय। लँगड़े और अंधे के संयोग की तरह पुरुष और प्रकृति का संयोग है। पुरुष चेतन है और अपना बिंब प्रकृति में देखकर अपने को ही कर्ता समझता है और इसी अज्ञान के बंधन में पड़कर दु:ख भोगता है, मोह को प्राप्त होता है। जिस समय पुरुष को ज्ञान हो जाता है कि वह कर्ता नहीं है, निर्लिप्त, कूटस्थ साक्षी मात्र है, प्रकृति का नाटय उसके लिए समाप्त हो जाता है। अज्ञानजन्य कर्मबंध से मुक्त होकर अपने केवल रूप को जान लेना कैवल्य या मोक्ष है और यही परम पुरुषार्थ है। मुक्त होने पर मुक्त पुरुष के लिए प्रकृति महत्वहीन है परंतु अन्य संसारी पुरुष के लिए वह सत्य है क्योंकि प्रकृति का नाश नहीं होता। यही कारण है कि सांख्य में नाना पुरुष माने गए हैं। पुराणों तथा 'सांख्यप्रवचनसूत्र' के अनुसार पुरुषों के ऊपर एक पुरुषोत्तम भी माना गया है। यह पुरुषोत्तम या ईश्वर पुरुष को मोक्ष देता है। परंतु प्राचीनतम उपलब्ध सांख्य ग्रंथ 'सांख्यकारिका' के अनुसार ईश्वर को सांख्य में स्थान नहीं है। स्पष्टत: कपिल भी निरीश्वरवादी थे, सेश्वर सांख्य (ईश्वरवादी सांख्य) का विकास बाद में हुआ।
सांख्य में पचीस तत्व माने गए हैं। पुरुष, पुरुष की संनिधियुक्त प्रकृति से महत् या बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्म भूत और मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ और पाँच स्थूलभूत उत्पन्न होते हैं। इनमें से प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं है, महत् अहंकार और तन्मात्राएँ, ये सात प्रकृति से उत्पन्न हैं और दूसरे तत्वों को उत्पन्न भी करते हैं। बाकी सोलह तत्व केवल उत्पन्न हैं, किसी नए तत्व को जन्म नहीं देते। अत: ये सोलह विकार माने जाते हैं, प्रकृति अविकारी है, महत् आदि सात तत्व स्वयं विकारी हैं और विकार उत्पन्न भी करते हैं।
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