Saturday 24 January 2015

40 से 60 लीटर दूध देने वाली भारत की गीर गाय : सिर्फ 5000 गाये ही बची हैं|





आज के संदर्भ में यदि हम देखें तो भारत जैसे छोटी जोत वाले देश की खेती गोपालन एवं गो संरक्षण से ही जीवित रह सकेगी। पेट्रोलियम ऊर्जा की आसमान छूती कीमतें एवं इसके लिए अपने देश की बढ़ती परावलम्बन की स्थिति में प्रदूषण रहित एवं सस्ते वैकल्पिक ऊर्जा का स्रोत गोवंश ही हो सकता है।

अनेक कुटीर उत्पादों के रूप में गोवंश को ग्रोमोद्योग का आधार बनाया जा सकता है। आज के किसान गोआधारित कृषि, गोआधारित स्वास्थ्य, गोआधारित ऊर्जा एवं गोआधारित ग्रोमोद्योग अपना कर अपनी सभी समस्याओं का समाधान अकेले गोपालन से कर सकते हैं। लेकिन यह सब भारतीय नस्ल की गायों के द्वारा ही हो सकता है।

हमारे देश में सन 2003 की पशुगणना के अनुसार 18.7 करोड़ गोधन है। इनमें मुख्यत: 30 मान्य भारतीय नस्लें हैं, 10 से अधिक अन्य अपहचानित नस्लें हैं। उपयोगिता के आधार पर इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम है दूध देने वाली नस्लें, ये अधिक दूध देने वाली गायें है परंतु इनके बैल अच्छे भारवाही नहीं होते हैं। इनमें साहीवाल, लाल सिंधी, गीर व राठी नस्लें आती हैं। दूसरे वर्ग में भारवाही नस्लें हैं। भारत की अधिकांश देसी नस्ले इसी वर्ग में आती हैं। इनमें प्रमुख रूप से अमृतमहल, बचौर, बरगुर, डांगी, हल्लीकर, कांग्याम, केनकथा, खैरीगढ़, खिल्लारी, मालवी, नगोरी, निभारी, पवार, लाल कंधारी एवं सीरी नस्लें आती हैं। इस वर्ग की नस्लें प्राय: बैलों के लिए ही पाली जाती हैं। तीसरा वर्ग द्विकाजी नस्लों का है अर्थात् इनकी गायें अच्छा दूध देती हैं और बैल भी शक्तिशाली होते हैं। इस वर्ग में प्राय: देवनी, गावलाव, हरियाना, कांकरेज, कृष्णावैली, मेवाती, अंगोल एवं थारपारकर आदि नस्लें आती हैं।

ये सभी नस्लें भारतीय परिवेश में पली बढ़ी हैं। अत: यहां की जलवायु में सहज रूप से रहने की इनमें विलक्षण क्षमता है। असामान्य जलवायु का इनकी उत्पादन एवं कार्य क्षमता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है। इनमें उत्तम रोगप्रतिरोधक क्षमता होती है अत: रोगों से आर्थिक हानि बहुत ही कम होती है।



स्वदेशी नस्ल की गायें न्यूनतम पोषण, आहार एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उपयोगी सिद्ध होती हैं। आज भारत की प्रसिद्ध 30 नस्लों में से अधिकतर समाप्ति की कगार पर हैं। सर्वश्रेष्ठ थारपारकर नस्ल को भी संकरित कर समाप्ति की ओर धकेला जा रहा है। गुजरात प्रदेश की सरकार की सराहना करनी होगी कि उसने ‘क्रासब्रीडिंग’ करने के दबाव के बावजूद भी अपने यहां की गीर नस्ल पर निरंतर कार्य किया जिसके परिणाम स्वरूप गुजरात में 25 लीटर प्रतिदिन दूध देने वाली गायें भी आज सुलभ हैं।

भारतीय गायों पर विदेशों में भी शोध कार्य चल रहा है। इजराइल ने गीर नस्ल पर कार्य करके सिद्ध किया है कि भारतीय गाय आज दूध देने की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ गाय है। हरियाणा, साहीवाल एवं गंगातीरी गायों पर विदेशों में भी कार्य हुआ है और इसके बहुत अच्छे परिणाम आए हैं। सूअर "के जीन्स वाली विदेशी जर्सी" गाय को घर घर पहुचाने वाली हमारी सरकारों ने मोती हड्डी वाली दूध की खान "गीर" गाय को क्यों नहीं घर घर पहुचाया जबकि ब्राजील की सरकार ने इन्ही गीर गायो के भरोसे पुरे ब्रजील में दूध की नदी बहा दी है. मुझे तो इसमें भी साजिस नजर आती है. जब गीर गाय की ब्रीडिंग भारत की अन्य नस्लों के साथ प्राकृतिक र्रूप से किया जा सकता है.

विदेशों में दूध एवं मांस का लक्ष्य रखकर गो संवर्धन किया जाता है जबकि भारत को दूध एवं खेती-बाड़ी के लिए बैलों की आवश्यकता है। आज भी हमारी 67 प्रतिशत खेती बैलों पर निर्भर है। निकट भविष्य में बैलों की आवश्यकता रहेगी, इसलिए हमारे गो संवर्धन का लक्ष्य सर्वांगी नस्ल तैयार करना होना चाहिए यानी की बछिया अधिक दुधारू हो और बछड़ा खेती जोत के लायक उत्तम बैल बने। किसी भी हालत में बैल शक्ति का घटना भारत के लिए अनुकूल नहीं हो सकता। समतल भूमि एवं शहरों की सड़क पर सम्भव है कि संकरित बैल काम कर सकें, परंतु गांवों में, खेती में एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मुश्किल से ये कार्य करेंगे।

महाराष्ट्र के सतारा जिले के धोकमोंड क्षेत्र में पिछले अनेक वर्षों से अपग्रेडिंग का कार्य होता आया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम भी आए हैं। खिलार नस्ल को थारपारकर से अपग्रेड किया गया तथा इस अपग्रेड नस्ल का नाम ‘खिलारधारी’ रखा गया। खिलार का दूध 4-5 लीटर होता है जबकि खिलारधारी में अधिकतम 14-15 लीटर तक दूध मिलता है। घृतांश का प्रतिशत भी अधिक है एवं बैल खेती के लिए उत्तम हैं। अत: जहां नस्ल सुधार की आवश्यकता हो, वहां भारतीय नस्ल से ही अपग्रेडिंग करनी चाहिए।


भारत की मान्य नस्लों की क्रासब्रीडिंग पर पूर्णतया रोक लगा देनी चाहिए। इन मान्य नस्लों में गीर, थारपारकर, कांकरेज, ओंगोल, कांगायम एवं देवनी आदि प्रमुख हैं। इसमें अधिकांश नस्लों से सेलेक्टिव ब्रीडिंग या अपग्रेडिंग के माध्यम से नस्ल सुधार किया जाना चाहिए। इससे इनके स्थाई (मूल) गुणों को आंच आए बिना दूध एवं बैल शक्ति दोनों की वृद्धि हो सकेगी। आज हमारे पास दो ढाई हजार लीटर दूध प्रति ब्यांत के साथ उत्तम बैल देने वाली गायें मौजूद हैं। इन मान्य नस्लों पर क्रासब्रीडिंग करके उनके मूल गुणों को नष्ट करना देश के लिए अत्यंत हानिप्रद होगा।

आज करोड़ों किसानों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली गोसंवर्धन नीति में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि सर्वांगी  नस्लों जैसे कि हरियाणा, थारपारकर, गीर, कांकरेज, कांगायाम एवं देवनी आदि को सेलेक्टिव ब्रीडिंग से संवर्धित किया जाए। जो कम दूधवाली कम मान्य नस्लें हैं उनको देशी मान्य नस्लों से ही संकरित करके सर्वांगी नस्ल विकसित करनी चाहिए। इस प्रकार भारतीय नस्लों के संकरण (क्रास) को अपग्रेडिंग कहते हैं। महाराष्ट्र के सातारा जिले के धोकमोंड क्षेत्र में पिछले अनेक वर्षों से अपग्रेडिंग का कार्य होता आया है और इसके बहुत अच्छे परिणाम भी सामने आए हैं। ऐसा ही प्रयास देश में अन्य स्थानों पर भी किए जाने की आवश्यकता है।

किसानों के पास शुद्ध नस्ल की भारतीय गाएं उपलब्ध हो सकें, इसके लिए हमें पहले गौशालाओं पर ध्यान देना होगा और गौशालाओं में अच्छे नस्ल का भारतीय गोवंश तैयार हो, इसके लिए दसप (दस प्रतिशत) प्रणाली का उपयोग किया जाना चाहिए। इस प्रणाली के तहत गौशाला की 10 प्रतिशत सर्वोत्तम मान्य (true to breed) गऊओं को अलग बाडे में रखा जाना चाहिए, जिसे दसप बाड़ा कह सकते हैं। इस दसप बाडे में अच्छे सांड़ का प्रावधान किया जाना चाहिए ताकि आने वाली संतानें भी मान्य (true to breed) नस्ल की हों। इस बाड़े में उत्पन्न बछड़ों में से चुने गए उत्तम सांड़ ही बड़े होने पर अपनी गौशाला, समीपस्थ गांव और दूसरी गौशालाओं में वंश वृद्धि के लिए प्रयोग किए जाएं ताकि गौसंरक्षण के साथ गौसंवर्धन भी हो सके।










No comments:

Post a Comment